Sunday, November 14, 2010

भूभारभूत भवभूरियानकेन्द्रप्रत्यर्थिकैतवमहीपतिवाहिनीभिः
संप्लावितान्सकलसज्जनसाधुमार्गानुध्दर्तुमैहतविभुर्विधिनार्थितः सन्

जगत को भयानक भारभूत इन्द्रारि नृपों का हनन करें,
सन्मार्ग प्रवृत्त सज्जन को भी सैन्यत्रास भय विमुक्त करें ।
ब्रम्हा द्वारासंप्रार्थित प्रभु जन मन में सुख समृध्दि भरें,
कवि कहते न कारन प्रभुजी पृथ्वी पर अवतार धरें ।

जगत को संताप देने वाले इन्द्र के शत्रु राजाओं का हनन कर प्रभु संत जनों को त्रास और भय से मुक्त करते हैं । कवि कहते हैं कि ब्रम्हाजी के प्रार्थना करने पर ही प्रभु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं ।

Wednesday, November 3, 2010

एके न द्वै मातरौ गर्भवत्यौ येनाभूतां नागाधिराजः
मूर्ध्निक्षोणीं सर्षपं मन्यते यां सा तं दध्रे सर्षपीभावयन्ती ।।

इक केवल बलराम के कारण माताएं दो गर्भवती,
शून्य सी जानकर शीर्ष पर धारण करता जो पृथ्वी
शेषावतार नागाधिराज को सर्षप सा मान कर देवकी
विधि विधान मानते हुए स्व- उदर में हैं धारण करतीं ।।
केवल बलराम के कारण दोनों माताएं देवकी और रोहिणी गर्भवती हैं ये उस शेष नाग की लीला है जो पृथ्वी को शून्यवत जान कर सहज शीष पर धारण करते हैं । देवकी इसे विधी का विधान मान कर स्वीकार करती हैं ।

Tuesday, August 3, 2010

स्वह्रदयगर्भगानपि विजित्य न षट् प्रथमं-
सहजरिपून्स्वसुर्बत शिशुनवधीन्मधुपः ।
यदिदमकर्म वा सुरमुनिः कथमैधयत
क्षितिमथवा परीक्ष्य वपन्ति बुधा उचितम् ।।

स्वह्रदय गर्भसुत से षड्रिपु सहज पुत्र देवकी के
आश्चर्य मुनि ने उकसाये वध को, न वधे ।
अघ उत्पाद परीक्षा कंसाघ क्षितिघ्न पूर्व उत्तम वा
बीज वपन परीक्षण उत्तम विद्वान शिरोमणी का अथवा ।

ये षड्रिपु से देवकी के छह पुत्र जिनका वध करने को मुनि ने कंस को उकसाया
जैसे उसके पाप के चरम सीमा की परीक्षा ले रहे हों या धरती किसी विद्वान की तरह बीज की परीक्षा ले रही हो।

Friday, February 12, 2010

आत्माध्युपास्तिनिभृताहितभूरिवीर्य्या
संत्याजितोद्भवदपत्यफला निकामम् ।
भार्यैव शोकविकलस्ययदूत्तमस्य,
सत्कर्मपध्दथिरिवाकृत चित्तशुध्दिम् ।।

सत्कर्म पध्दति मार्ग का गन्तव्य अंतिम ब्रह्म है ,
इस पध्दति के अनुसरण से प्रछन्न तेजस लभ्य है ।
साफल्य दुर्लभ प्राप्य किन्तु जनित स्वर-सुख त्याग से,
वसुदेव को स्त्री लाभ तद्वत् सुत सुखेच्छा त्याग से ।
ब्रह्मकर्म उपासना को करे नित जो नियम पूर्वक
वसुदेव यदुवर वो बने प्रछन्न तेजोबल प्रमुख ।

Saturday, January 9, 2010

अद्योढकान्ताविपदग्रदग्धः कंसंश्रयाणि व्यसनोपहत्यै ।
इत्थं विमर्शे किल शूरसेनोर्भिन्नार्थरीत्या ह्रदिनिर्णSयो भूत ।।

नूतन परिणित भार्या सङ्कट मोचन को
वसुदेव सोचते किसकी शरण गहू मैं ।
कंस श्रयाणि को कंसंश्रयाणि समझ कर
वृष्णिकुमार पहुंचे निर्णय को सुखकर ।

अपनी इस भार्या के संकट को मै कैसे टालूं इस चिंता में व्यथित वसुदेव कंस के आश्रय की जगह कंसंश्रयाणि के सुखद निर्णय पर पहुंचे ।

Sunday, January 3, 2010

हन्तुं ते भगिनिं व्यधायिन पुरस्तेनाSसियष्टिर्द्विषत्-
कीलालार्द्रपृषद्वती परमहो दुष्कीर्तीरेवास्य सा ।
तस्या: स्वर्गपदादिरोहणलसध्देतोरिहोतोSनम
द्रागानूनमनूनदीप्तिरकरोतप्रोत्कंठकण्ठग्रहम् ।।

खड्ग जो अरिरक्तरंजित कंस की कीर्ती बढाता
आज अपनी भगिनि के वध हेतु क्यूं भाई उठाता ?
भाई प्रतापी, बहन अति प्रिय थी जिसे परिणय के पहले
स्वर्ग-गमन हो भगिनि का इस हेतु व्यग्र हो कंठ धरता ।

जिस प्रतापी कंस का खड्ग अपने पराक्रम के कारण शत्रु रुधिर से रंजित है, वही आज खड्ग बहन पर क्यूं उठा रहा है । जिस कंस को देवकी उसके विवाह से पूर्व तक अति प्रिय थी आज वही उसको स्वर्ग भेजने के लिये व्यग्र होकर उसका कंठ धर रहा है ।