Tuesday, January 29, 2013


असान्तताभागमुना दधेSयः कृष्णस्वरूपीह तु सान्तताभाक् ।
मयेति मत्वा निगडो नु शौरेर्युक्तं विशीर्णो बहुलोहजुष्टः ।।


अविनाशी कृष्ण स्वरूप हैं शिरोधार्य श्री वसुदेव के,
कृष्ण वर्ण श्रृंखला विनाशी हूँ निगडित मैं यदुपद से,
विगलित हुई लोह श्रृंखला इस तर्क वितर्क में,
उचित ही, शौरिपद से टूट गई, गल गल गई न्यून गंड से ।

य़े कृष्ण स्वरूप प्रभु वसुदेव के आराध्य हैं उन्हें इस कृष्ण वर्ण श्रृंखला का नाश करना है क्यूं कि वे यदुपद से जुडे हैं। इस विवाद में वह श्रृंखला स्वयंही टूट कर बिखर गई मानो न्यूनगंड से गल गई हो ।

Sunday, January 20, 2013


सुपर्वतोषाय यथा य़थाक्रमं प्रभुःस खर्वोSपि पुरा स्म वर्धते
पितृप्रियायाSत्र महालपि स्वयं लघुर्बभूवेन्दुरिव स्वपूर्वजः

लघुतम वामन रूप से शनैः शनैः विशालता प्रभु धारण करते
पूर्व समय देवों को संकट विमुक्त आनन्दित करते
श्रीकृष्ण जन्म से मात-पिता प्रमुदित हो इस हेतु से
कुल संस्थापक चंद्र के समान विशालता त्यज बने शिशु से

अपना वामन रूप धीरे धीरे बढा कर प्रभु विशाल रुप धारण करते हैं और (बलि को पाताल में धकेल कर ) देवों को संकटमुक्त तथा आनंदित करते हैं । अपने पूर्वज चंद्र के समान ( जो कि सदैव घटता बढता है ) प्रभु वालकृष्ण के रूप में जन्म लेकर माता पिता को सुख पहुंचाते हैं ।