Tuesday, August 27, 2013

काव्यालंकारविद्याव्यसनपरवशेवाद्य सा प्रत्यनीका-
लंकारस्य स्मरन्ति व्रजधरणिरुहानात्रिगव्यूत्यभांक्षित् ।
मूर्ति स्वां संप्रदार्यद्रुतमपि च परं रूपमाक्षिप्य शाब्दं-
शास्त्रं व्याकुर्वतीव प्रलयघनरवा बिभ्रती पूर्वरूपम् ।
  
काव्य अलंकार विद्या का व्यासंङ्ग
प्रत्यनीक कृष्ण के अलंकार का स्मरण ।
प्रथम करे मोहिनि रूप को धारण
माया चतुरा करे अनुनय कृष्णे कहकर ।
अन्त समय में पररूप स्वयं त्याग कर,
ध्वंस करे वृजवृक्ष छः मील दूर तक ।
मेघ गर्जना नाद करे कल्पान्त तक,
शब्दशास्त्र को मूर्त करे राक्षसी रूप धर ।


पूतना कृष्ण को मारने प्रथम तो उन के मोहिनि  रूप जैसा ही रूप धारण करती है और प्यारे प्यारे मीठे बोल बोलती है । अन्ततः य़े सुंदर रूप उसे त्यागना ही पडता है और राक्षसी का रूप धारण करना पडता है उसकी गर्जना दूर तक गूंजती है और व्रजवासी उसके सत्यस्वरूप को जान ही लेते हैं ।

Friday, August 9, 2013

परः सहस्त्रासुरवंशभोजी स्तन्येन तस्याः किल कृष्णकालः ।
प्राणाहुतीनां सहपञ्चके न मन्येSमृतोपस्तरणं चकार ।।

भूतकाल कालग्रास कालरूप घनश्याम,
सहस्त्रमित दैत्यों का भोग लगायें गोपाल ।
स्तनपय आचमन करें पंचप्राणाहुति ले,
अमृतोपस्तरण से आशिर्वचन दे सच ये ।
तृप्त हुए विधिवत, कृष्ण पूर्ण सत्कार से,
उसी वंश की राक्षसी पूतना मायाविनि से ।

दुष्टों के लिये काल रूप गोपाल ने भूतकाल में सहस्त्रों दैत्यों को ग्रास बनाया है ।
पूतना का स्तन्यपान करके उसेक पचप्राण हर लेते हैं पर उसे इस उपकार के लिये, इस तृप्ति के लिये पूर्ण सत्कार के साथ आशिर्वाद  भी देते हैं ।