Friday, September 13, 2013

मोक्षंवरीतुमघमूर्त्तिरियं मुकुन्दं प्राप्यात्मनस्तु परिपूर्णमनोरथापि।
प्राप्ति सरत्करपदं स्वजनस्यमुक्त्यै लाभेन्घनेन समदीप्यतिलौभवह्निः।।

मायाविनि अघरूपिणि यह पूतना साक्षात्,
ईश्वरसन्निकटत्व से मुक्तिफल संप्राप्त।
स्वजन मुक्ति काम सा हस्तपाद संप्रास,
अंत समय कृष्ण को पूतना-लोभ संत्रास।
कामतृप्ति से होती कामना वृध्दिंगत,
लोभकाष्ठ दंडिका से तृषाग्नि प्रदीप्त।


ये पूतना पाप का साक्षात स्वरूप है। कृष्ण के सानिध्य से ही उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई है। उसका लोभ किंतु बढता ही जा रहा है और अपने साथ वह स्वजनों की भी मुक्ति चाहती है। किसीने सच ही कहा है कि कामतृप्ति से कामना और बढती है जैसे पूतना की तृष्णाग्नि लोभ रूपी लकडी से और प्रज्वलित हो गई है।