काव्यालंकारविद्याव्यसनपरवशेवाद्य सा प्रत्यनीका-
लंकारस्य स्मरन्ति व्रजधरणिरुहानात्रिगव्यूत्यभांक्षित् ।
मूर्ति स्वां संप्रदार्यद्रुतमपि च परं रूपमाक्षिप्य शाब्दं-
शास्त्रं व्याकुर्वतीव प्रलयघनरवा बिभ्रती पूर्वरूपम् ।
काव्य अलंकार विद्या का व्यासंङ्ग
प्रत्यनीक कृष्ण के अलंकार का स्मरण ।
प्रथम करे मोहिनि रूप को धारण
माया चतुरा करे अनुनय कृष्णे कहकर ।
अन्त समय में पररूप स्वयं त्याग कर,
ध्वंस करे वृजवृक्ष छः मील दूर तक ।
मेघ गर्जना नाद करे कल्पान्त तक,
शब्दशास्त्र को मूर्त करे राक्षसी रूप धर ।
पूतना कृष्ण को मारने प्रथम तो उन के
मोहिनि रूप जैसा ही रूप धारण करती है और
प्यारे प्यारे मीठे बोल बोलती है । अन्ततः य़े सुंदर रूप उसे त्यागना ही पडता है और
राक्षसी का रूप धारण करना पडता है उसकी गर्जना दूर तक गूंजती है और व्रजवासी उसके
सत्यस्वरूप को जान ही लेते हैं ।
2 comments:
बहुत ही सुंदर,
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
और कृष्ण पूतना को भी देते हैं त्राण ,
करते शंकर का आह्वान ,
पीते शंकर स्तन विष को ,
कृष्ण करें दुग्द्ध पान।
करते उसमें माँ का भान।
शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
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