Sunday, November 3, 2013

अतीत्य तत्तत्पदमुच्चदेश भाग्बकीव धूम्यापि तदीय देहजा।
तुतोद गाढं व्यवधामविभ्रतीस्तदेन्द्रचन्द्रादिदृशो भृशोज्वलाः।।

केशव कर प्रदत्त मृत्यु से पूतना करे स्वर्गारोहण,
ऊँचे नभ धूम अभ्र विहरे दैत्या तनु दाहना के कारण।
मुदित चंद्र, इन्द्रादि सुरों के नयनों का अतिशय पीडन,
धूम निमिष में दूरक सा ये सुर आनंद चंद्र विकसन।।

कृष्ण के हाथों मृत्यु मिलने से पूतना स्वर्ग तो जा रही है पर शरीर दाह के कारण
पीडित है। इंद्रादि देव इस पूतना वध से अत्यंत प्रसन्न हैं मानो धूएं के बादल क्षण भर में हट
कर उनका आनंद रूपी चंद्र निकल आया हो।

Saturday, October 12, 2013

अहो महीयस्तनुदाहनक्षमं क्व वेन्धनं स्यादिति संभ्रमाकुलाः
द्रुमच्छिदं वीक्स्य तु तां न गोदुहो विषाद कालेSपि मुदं व्यमुक्षत।।

है विचार प्राप्त कहाँ विशाल तनु दाहक्षम इंधन,
गोरक्षक आश्चर्य-चकित से है सम्मुख वृक्षों का ध्वंसन।
जिनका ह्रदय है क्लेशयुक्त ब्रज सम्पति हनन के कारण,
हर्ष से भरे वे गोपाल देख प्रयाप्त दाहनक्षम ईंधन

पूतना के विशाल शरीर को गिरता देख गोपाल सोच रहे हैं कि इस विशाल काया को जलाने के लिये इंधन कहां से आयेगा ? उसके देह के साथ गिरते इतने सारे वृक्ष देख कर ब्रज सम्पत्ती के नष्ट होने के दुख हो रहा है लेकिन साथ ही ईंधन की समस्या सुलझ जाने का हर्ष भी है।


Friday, September 13, 2013

मोक्षंवरीतुमघमूर्त्तिरियं मुकुन्दं प्राप्यात्मनस्तु परिपूर्णमनोरथापि।
प्राप्ति सरत्करपदं स्वजनस्यमुक्त्यै लाभेन्घनेन समदीप्यतिलौभवह्निः।।

मायाविनि अघरूपिणि यह पूतना साक्षात्,
ईश्वरसन्निकटत्व से मुक्तिफल संप्राप्त।
स्वजन मुक्ति काम सा हस्तपाद संप्रास,
अंत समय कृष्ण को पूतना-लोभ संत्रास।
कामतृप्ति से होती कामना वृध्दिंगत,
लोभकाष्ठ दंडिका से तृषाग्नि प्रदीप्त।


ये पूतना पाप का साक्षात स्वरूप है। कृष्ण के सानिध्य से ही उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई है। उसका लोभ किंतु बढता ही जा रहा है और अपने साथ वह स्वजनों की भी मुक्ति चाहती है। किसीने सच ही कहा है कि कामतृप्ति से कामना और बढती है जैसे पूतना की तृष्णाग्नि लोभ रूपी लकडी से और प्रज्वलित हो गई है।  



Tuesday, August 27, 2013

काव्यालंकारविद्याव्यसनपरवशेवाद्य सा प्रत्यनीका-
लंकारस्य स्मरन्ति व्रजधरणिरुहानात्रिगव्यूत्यभांक्षित् ।
मूर्ति स्वां संप्रदार्यद्रुतमपि च परं रूपमाक्षिप्य शाब्दं-
शास्त्रं व्याकुर्वतीव प्रलयघनरवा बिभ्रती पूर्वरूपम् ।
  
काव्य अलंकार विद्या का व्यासंङ्ग
प्रत्यनीक कृष्ण के अलंकार का स्मरण ।
प्रथम करे मोहिनि रूप को धारण
माया चतुरा करे अनुनय कृष्णे कहकर ।
अन्त समय में पररूप स्वयं त्याग कर,
ध्वंस करे वृजवृक्ष छः मील दूर तक ।
मेघ गर्जना नाद करे कल्पान्त तक,
शब्दशास्त्र को मूर्त करे राक्षसी रूप धर ।


पूतना कृष्ण को मारने प्रथम तो उन के मोहिनि  रूप जैसा ही रूप धारण करती है और प्यारे प्यारे मीठे बोल बोलती है । अन्ततः य़े सुंदर रूप उसे त्यागना ही पडता है और राक्षसी का रूप धारण करना पडता है उसकी गर्जना दूर तक गूंजती है और व्रजवासी उसके सत्यस्वरूप को जान ही लेते हैं ।

Friday, August 9, 2013

परः सहस्त्रासुरवंशभोजी स्तन्येन तस्याः किल कृष्णकालः ।
प्राणाहुतीनां सहपञ्चके न मन्येSमृतोपस्तरणं चकार ।।

भूतकाल कालग्रास कालरूप घनश्याम,
सहस्त्रमित दैत्यों का भोग लगायें गोपाल ।
स्तनपय आचमन करें पंचप्राणाहुति ले,
अमृतोपस्तरण से आशिर्वचन दे सच ये ।
तृप्त हुए विधिवत, कृष्ण पूर्ण सत्कार से,
उसी वंश की राक्षसी पूतना मायाविनि से ।

दुष्टों के लिये काल रूप गोपाल ने भूतकाल में सहस्त्रों दैत्यों को ग्रास बनाया है ।
पूतना का स्तन्यपान करके उसेक पचप्राण हर लेते हैं पर उसे इस उपकार के लिये, इस तृप्ति के लिये पूर्ण सत्कार के साथ आशिर्वाद  भी देते हैं ।






Sunday, July 28, 2013

अहह बत दुरात्मप्रेषिता द्राक् शिशूना
मसुविदलनकामा पूतना नूतनानाम् ।।
नरकरिपुकरैष्यन्मृत्युतः प्रागपि स्वां-
त्रिदशवरवधूयन्त्यभ्ययान्नन्दगोष्ठम् ।।


काम प्राणहारक शिशु के रक्षक स्वप्राण के
मनोकामना मायाविनि की होगी परिपूर्ण शीघ्र कैसे।
आचरण देवांगना सा केवल है इस कारण से,
शीघ्र है स्वर्गाधिरोहण नरकासुरारि कर मृत्यु से,
स्तन्य पिला आनन्दित दैत्या का अभिनन्दन है ब्रज में ।

राक्षसी पूतना का काम कंस के प्राणहारक शिशु कृष्ण के प्राण हरना है
इस मायाविनि की ये इच्छा कैसे पूर्ण होगी । इसका देवांगना सा आचरण
केवल इस कारण से है क्यूं कि शीघ्र ही नरकासुर के शत्रु कृष्ण द्वारा इसकी मृत्यु के बाद यह स्वर्ग जायेगी । कृष्ण के हाथों जिसकी मृत्यु हो उसे तो स्वर्ग की प्रप्ति होनी ही है । अपना दूध कृष्ण को पिला कर आनंदित इस राक्षसी का इसी से ब्रज में स्वागत है ।

Sunday, July 21, 2013

स्वर्लोकानंदमूर्ध्नः पदमुपरि ददद्भोदोजराजे करं च
ज्यायोमित्रस्य शोरेः श्रुतिमपिचशिरः सद्वचस्यांघ्रियुग्मे ।
नन्दोदृष्टिंट धर्मे ह्ददयमपि सुतेSध्यूढसर्वांगदाना-
वेशोपि क्वापि नादादनभिमुखतयेव्त्मनः पृष्ठमेकम् ।।

स्वर्गसुखानन्द पर पैर दियो नन्द देव
हाथ दियो भोजराज कर ही चुकाने को ।
कान दियो मित्र वसुदेव बात सुनवे को
सिर दियो पावन चरण शोरिपूज्य को ।

धर्म राखिबै के काज आंख दियो ब्रजपति
बेटा भये की खुशि में हिरदय न्योछावर सों ।
नन्दानन्दा वेश मे ही सब तन वा-यो पर ,
पीठ न दिखाई सुत जनम उत्सव को ।


कृष्ण की प्राप्ति से नन्द के पांव स्वर्ग पर पड जायें इसीसे  प्रभु ने उन्हे
पांव दिये हैं । हाथ भोजराज को कर देने के लिये तथा कान अपने मित्र
वसुदेव की बात सुनने के लिये और सिर कृष्ण के चरणों में झुकाने के लिये है ।
धर्म की रक्षा करने के लिये आंखें मिली हैं और दिल  पुत्र कृष्णजन्म की खुशी में उन पर न्योछावर करने को मिला है । इस नंद में अपना सब तन (मन) वार कर भी पुत्र जन्म के उत्सव में उत्साहित हैं ।