अद्योढकान्ताविपदग्रदग्धः कंसंश्रयाणि व्यसनोपहत्यै ।
इत्थं विमर्शे किल शूरसेनोर्भिन्नार्थरीत्या ह्रदिनिर्णSयो भूत ।।
नूतन परिणित भार्या सङ्कट मोचन को
वसुदेव सोचते किसकी शरण गहू मैं ।
कंस श्रयाणि को कंसंश्रयाणि समझ कर
वृष्णिकुमार पहुंचे निर्णय को सुखकर ।
अपनी इस भार्या के संकट को मै कैसे टालूं इस चिंता में व्यथित वसुदेव कंस के आश्रय की जगह कंसंश्रयाणि के सुखद निर्णय पर पहुंचे ।
Saturday, January 9, 2010
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