Saturday, January 9, 2010

अद्योढकान्ताविपदग्रदग्धः कंसंश्रयाणि व्यसनोपहत्यै ।
इत्थं विमर्शे किल शूरसेनोर्भिन्नार्थरीत्या ह्रदिनिर्णSयो भूत ।।

नूतन परिणित भार्या सङ्कट मोचन को
वसुदेव सोचते किसकी शरण गहू मैं ।
कंस श्रयाणि को कंसंश्रयाणि समझ कर
वृष्णिकुमार पहुंचे निर्णय को सुखकर ।

अपनी इस भार्या के संकट को मै कैसे टालूं इस चिंता में व्यथित वसुदेव कंस के आश्रय की जगह कंसंश्रयाणि के सुखद निर्णय पर पहुंचे ।

Sunday, January 3, 2010

हन्तुं ते भगिनिं व्यधायिन पुरस्तेनाSसियष्टिर्द्विषत्-
कीलालार्द्रपृषद्वती परमहो दुष्कीर्तीरेवास्य सा ।
तस्या: स्वर्गपदादिरोहणलसध्देतोरिहोतोSनम
द्रागानूनमनूनदीप्तिरकरोतप्रोत्कंठकण्ठग्रहम् ।।

खड्ग जो अरिरक्तरंजित कंस की कीर्ती बढाता
आज अपनी भगिनि के वध हेतु क्यूं भाई उठाता ?
भाई प्रतापी, बहन अति प्रिय थी जिसे परिणय के पहले
स्वर्ग-गमन हो भगिनि का इस हेतु व्यग्र हो कंठ धरता ।

जिस प्रतापी कंस का खड्ग अपने पराक्रम के कारण शत्रु रुधिर से रंजित है, वही आज खड्ग बहन पर क्यूं उठा रहा है । जिस कंस को देवकी उसके विवाह से पूर्व तक अति प्रिय थी आज वही उसको स्वर्ग भेजने के लिये व्यग्र होकर उसका कंठ धर रहा है ।