Wednesday, December 10, 2008

नमो न मोहाधिविनाशिनो गुरो:,पदोपदोत्कृष्टपदं नयेद्यदि
नवेत्ता हित मध्वना कथं, समं स मंङ्क्षु र्स्वजनैर्भवैज्जन:

मोहनाश करने वाले सद् गुरु की कृपा स्मरें
गुरु नमन से बढ कर जग में और नही उपहार बडे
कैसे कोई सक्षम होगा हित अन-हित जानने हेतु,
स्वजनों के साथ गुरु को नित प्रणाम जो न करे
डगमग पद चलने वाले, यदि कोई मुमुक्षु हैं जग मे
हित अहित जानने हेतु वे सद् गुरु का नमन करे

अनिल काळे

Sunday, December 7, 2008

हरित्पालान्वेणोरमृतमधुरालापविवशान्
प्रकुर्वन्तङ्कालाभयसुखमहालाभदपदम्
विशालाक्षङ्कचिन्नवघनतमाला भमनिशम्
भजे गोधुग्बालानयनवनमालापरिचितम् ।

दिग्पाल हुए विव्हल अमृत के
समान मधुवंशी आलाप से
मृत्यु, काल, भय मुक्त हुए जन
अभय रूप सुख महा लाभ से ।

विशालाक्ष नवघन तमाल
आभा वाले ओ घनशाम
ग्वालिन-वधु नयन वनमालिका के
प्रियकर भगवन् तुम्हे प्रणाम ।

अनिल काले

Wednesday, December 3, 2008

तत्तप्रारब्ध दूरीकृतभविकचयांछुण्डयाकृष्य दिग्भ्यो-
भक्तांप्रत्यर्पयन्तं श्रवणपवनतस्तासु रिक्तासु चैषाम्
विघ्नान्प्रस्थापयन्तं पदविनतनृणा योगभद्राख्यकृत्यं
स्वांङ्गेनैवाचरन्तं शरणमिभमुखं तं दयालुं प्रपद्ये

कर्षित कर स्वशुण्ड से मंगल
दिगन्त से भक्तोंप्रति अर्पण
प्रकुशल रिक्त दिशा में पुनरपि,
कर्ण-पवन से विघ्न स्थापन ।

उपरोक्ताधि स्वांग कर्मो से
कृपा करें भक्तों पर भगवन
योगक्षेम नित निज भक्तों का
वहन करो, हे गजमुख वंदन ।

Tuesday, November 25, 2008

श्रीमद् भागवतव्यंजनम यह महाकवि ढुंढिराज शास्त्री काले द्वारा रचित मूल संस्क़ृत ग्रंथ श्रीमद् भागवतव्यंजनम का हिंदी पद्यानुवाद है । यह उन्ही के प्रपौत्र (स्व.)श्री अनिल काले द्वारा रचित है । श्री कालेने अपनी लंबी अस्वस्थता के होते हुए भी केवल इच्छाशक्ती के बल पर इसे पूरा किया और इसे प्रकाशित भी किया । उनकी इच्छा थी कि यह मौलिक संस्कृत ग्रंथ जन जन तक पहुँचे । श्री काले का यह अनुवाद किसी छन्द का आश्रय नही लेता अपितु संगीत के स्वर, लय और पद्धति काअनुसरण कर रुचिकर एवं कर्ण मधुर हो उठा है ।

श्री ढुण्ढिराज कृत भागवत व्यंजनम्
प्रथम उल्लास

अम्बा हासेतिशुक्लान्दशनवसनयोर्लोहिता केशपाशे
कृष्णां वन्दे कुलेशां प्रकृति विकृतिभि: सप्तभि: श्रृंगदम्भात्
राजन्तं या प्रपंचं मुनिशिखरमधिष्ठाय शैलचकास्ति
ब्रम्हाण्डाखण्डमूलप्रकृतिर विकृतिश्चेतनालिंङ्गिताङ्गि ।

अंबा के मुख पर सुन्दर स्मित
प्रतिपश्चंद्र किरण सा झलके
अघ नाशार्थ दशन और वसन
रक्तिम अरुणिम रिपु रुधिर से ।।

केशपाश कोमल घन तमसा
कुलदेवी स्कंध पर सुशोभित
त्रिगुणात्मके हे जगदम्बे तू
अभिवादन यह कर ले स्वीकृत ।।

कारण मूल इस अखिल जगत का
प्रकृति-विकृति स्वरूपिणी शक्ती
लिंग रूप धारण करती जो
चिद्स्वरूप अम्बा जगदात्री ।।

सप्तमहत कारण प्रतीक से
सप्तश्रृंग शिखरों की शोभा
द्विगुणित करती तप पूत यह
मुनि-ऋषि वृंद बीच श्री अंबा ।।

अनिल काले
जबलपूर