Friday, February 13, 2009

वर्तध्वे चित्स्वरूपा: श्रुतिनियमबलात्सर्वदा जागरूका:
स्तद्युष्मान्प्रार्थयेSहम्मुहुरिदमखिलानाSSविधेराच कक्षात् ।
उत्प्रेक्षादि प्रयुक्त्या सद सदपि गिरा प्रोच्यते यद्यदस्मिन्
काव्ये तत्तत्कक्षमध्वम्निजनिजसदलंकारसम् भावलाभि: ।

वेद शास्त्र के पठन से प्राप्त बल बलवान
सूज्ञ-चेतन जागरूक आप सब हैं विद्वान ।
काव्य-शास्त्र नियमाथेति, रचना तनु-परिधान
उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकार मणि-कांचन के समान।
शक्ति से सद्-असद भेद से गुण-अवगुण को जान
प्रार्थना स्वीकारिये जन, कीजिये रसपान ।
आप सब रसिकारसिक वेदशास्त्र के जानने वाले हैं । काव्य शास्त्र इस रचना के परिधान हैं तथा उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार इसके आभूषण है । अपनी ज्ञान शक्ति से इस रचना के गुण और अवगुण पहचान कर इसका रस पान करें और आनंद उठायें, यही मेरी नम्र विनंती है ।

अनिल काले
जबलपूर

Friday, February 6, 2009

रसज्ञरसवैरिणोरुभयमोव पृथ्वीचरन्न
चैकतरमेतयेरपि रसग्रहे प्रार्थये
कृतिर्ही सरसास्ति चेदिहरमेत पूर्व: स्वयं,
प्रनिम्न इव वारधोकुंभबंधु पर: ।

रसज्ञ-रसवैरि दोनों इस पृथ्वी पर
विचरण करते मुक्तभाव से जी भरकर
नही निमंत्रण देता हऊँ मै दोनों को,
कविता की रसशाला खुली है पर सबको
प्रनिम्न जल में अधो-वदन घटबन्धु प्लावन,
रसबैरि,मर्मज्ञ स्वयं, का रसमय जीवन ।

अनिल काले

कवि यहां रसिक तथा अरसिक दोनो में से किसी को भी निमंत्रण नही दे रहे हैं, अपितु ये कह रहे है कि उनकी ये काव्य
रूप मधुशाला सब के लिये खुली है । जो रसज्ञ हैं वे तो इस काव्य का मर्म समझते हैं क्यूंकि उनका तो जीवन ही रसमय है ।