Friday, February 6, 2009

रसज्ञरसवैरिणोरुभयमोव पृथ्वीचरन्न
चैकतरमेतयेरपि रसग्रहे प्रार्थये
कृतिर्ही सरसास्ति चेदिहरमेत पूर्व: स्वयं,
प्रनिम्न इव वारधोकुंभबंधु पर: ।

रसज्ञ-रसवैरि दोनों इस पृथ्वी पर
विचरण करते मुक्तभाव से जी भरकर
नही निमंत्रण देता हऊँ मै दोनों को,
कविता की रसशाला खुली है पर सबको
प्रनिम्न जल में अधो-वदन घटबन्धु प्लावन,
रसबैरि,मर्मज्ञ स्वयं, का रसमय जीवन ।

अनिल काले

कवि यहां रसिक तथा अरसिक दोनो में से किसी को भी निमंत्रण नही दे रहे हैं, अपितु ये कह रहे है कि उनकी ये काव्य
रूप मधुशाला सब के लिये खुली है । जो रसज्ञ हैं वे तो इस काव्य का मर्म समझते हैं क्यूंकि उनका तो जीवन ही रसमय है ।

No comments: