Wednesday, December 3, 2008

तत्तप्रारब्ध दूरीकृतभविकचयांछुण्डयाकृष्य दिग्भ्यो-
भक्तांप्रत्यर्पयन्तं श्रवणपवनतस्तासु रिक्तासु चैषाम्
विघ्नान्प्रस्थापयन्तं पदविनतनृणा योगभद्राख्यकृत्यं
स्वांङ्गेनैवाचरन्तं शरणमिभमुखं तं दयालुं प्रपद्ये

कर्षित कर स्वशुण्ड से मंगल
दिगन्त से भक्तोंप्रति अर्पण
प्रकुशल रिक्त दिशा में पुनरपि,
कर्ण-पवन से विघ्न स्थापन ।

उपरोक्ताधि स्वांग कर्मो से
कृपा करें भक्तों पर भगवन
योगक्षेम नित निज भक्तों का
वहन करो, हे गजमुख वंदन ।

1 comment:

mastkalandr said...

श्रीमद् भागवत व्यञ्जनम्.., का प्रकाशन जो काम आशा जी आप कर रही है इस से बहुत से लोगों को लाभ प्राप्त होगा .. मेरी आपको शुभकामनाये इश्वर आपको सफल करे ...हम सब आपके साथ है ..कोई सेवा का काम हो तो निसंकोच कहें....
साहित्य ,संगीत आणि कला विहीन मानुस म्हणजे सेपुट आणि शिंगे नसलेला प्रानीच होय ... मक